Monday, August 23, 2010

रोटी नहीं मकान चाहिए, सीमेंट कि दिवार चाहिए। - तारकेश्वर गिरी.

रोटी नहीं मकान चाहिए,
सीमेंट कि दिवार चाहिए।
लम्बी - लम्बी गाड़ी, महंगा सा मोबाइल,
और शाम को बीअर बार में शराब चाहिए।

अनाज नहीं चाहिए , खेतो का सामान नहीं चाहिए।
खेतो में फूलो गंध नहीं चाहिए,
हरे भरे पेड़ और आम नहीं चाहिए,
मौका मिले तो भंग चाहिए।

खेती कि जमीन पे हरियाली नहीं चाहिए,
नहरों में पानी नहीं और सुखा तालाब चाहिए।
हरे भरे बैग नहीं नोट चाहिए,
बैंक के खाते में दस-बीस करोड़ चाहिए।


ये कविता आज के हालत को देखते हुए मैंने लिखा हैं, आज दिल्ली और उसके आस पास कि उपजाऊ जमीन बड़ी - बड़ी मीनारों में तब्दील होती जा रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ , गाजियाबाद , नॉएडा , अलीगढ, बागपत जैसे इलाके कि जीमन बहुत ही ज्यादे उपजाऊ हैं, मगर वंहा के लालची किसान आज कि तारीख में अपनी जमीन बड़े - बड़े बिल्डरों और सरकार को विकास के नाम पर मोटि रकम ले कर के दे रहे हैं। जिसका नतीजा वो नहीं बल्कि उनकी आने वाली नस्ले भुगतेंगी।

6 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

विचारणीय...
रक्षाबंधन के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं...

Satish Saxena said...
This comment has been removed by the author.
Satish Saxena said...

बड़ा माल चाहिए आपको भाई जी ! खतरनाक विचार है आपके :-)))

DR. ANWER JAMAL said...

एक बार फिर आपने आखि़र वही साबित किया कि आपका मुकाब्बला नहीं, आपका जबाब नहीं। आपकी कविता में आने वाली नस्लों की चिंता साफ़ झलक रही है लेकिन आने वाली नस्ल को नेता खुद एक समस्या मान रहे हैं। आपकी बहुत बहुत तारीफ़ है भाई जी, कमाल कर दिया। क्या कविता कही है।

VIJU said...

WAHA WAHA KYA KHOOB LIKHA HAI AAPNEY



BHAWNAOO KO SAMJHOO

arvind said...

बहुत बढिया कविता...तारकेश्वर् जी....जितनी भी प्रसँशा की जाये कम होगी.....